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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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यूं तो लोगों के बीच रहता हूँ
ये हक़ीक़त है मैं अकेला हूँ

मुझको सच्चाई से अलग रक्खो
दोस्तो एक झूठा सपना हूँ

हाँ तुझे डूबने नहीं दूंगा
मैंने माना के एक तिनका हूँ

तेरा मेरा निबाह मुश्किल है
तू है पत्थर सनम मैं शीशा हूँ

फिर मुलाक़ात हो कहीं शायद
तुम भी घर जाओ मैं भी चलता हूँ

मुझको दुनिया 'रक़ीब' कहती है
क्या बताऊँ किसी को मैं क्या हूँ
</poem>
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