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रचनाकार=राम प्रकाश 'बेखुद'
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कुछ तेरा चेहरा मुझे लगता है पहचाना हुआ
जिन्दगी सूरत तेरी देखे हुए अरसा हुआ

क्या रकीबों ने कहा कुछ या कोई सदमा हुआ
कुछ तो कहिये आपका चेहरा है क्यों उतरा हुआ

टूटना इनका मुकद्दर है तो कोई क्या करे
दिल हुआ शीशा हुआ हिम्मत हुई तारा हुआ

कुछ तेरी आँखें भी बोझल और कुछ मैं भी निढाल
मैं थका दिन भर का तू भी रात का जागा हुआ

मौत से इक बार मुमकिन है कि बच जाए कोई
ज़िंदगी, पानी न मांगेगा तेरा काटा हुआ

हम फकीराने मोहब्बत के लिए सब एक है
घर हुआ मंदिर हुआ मस्जिद कि मैखाना हुआ

ज़िंदगी तू भी बहुत है मुझसे उकताई हुई
सच कहूँ तो मैं भी हूँ तुझसे बहुत ऊबा हुआ

वो मेरा अक्सर गुलोबुलबुल के किससे छेड़ना
और उनका बारहा ये पूछना फिर क्या हुआ

बढ़ गयी उतनी ही मेरी उलझनें दुश्वारियां
वो मेरे बारे में 'बेखुद' जितना संजीदा हुआ</poem>