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विमाता के प्रति / अनिल जनविजय
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14:10, 23 जून 2007
तुम सुरभि
बन छाओ
अनमने दिन
दिन बीते
रीते-रीते
इन सूनी राहों पे
मिला न कोई राही
बना न कोई साथी
वन सूखे चाहों के
याद न कोई आता
न मन को कोई भाता
घेरे खाली हैं बाहों के
कलप रहा है तन
जैसे भू-अगन
दिन आए फिर कराहों के
अनिल जनविजय
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