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12:31, 20 जनवरी 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=चाँद हादियाबादी
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<poem>
हमने बना के रक्खी है तन्हाइयों के साथ
ख़ुश हैं हम अपनी ज़ात की परछाइयों के साथ
हमदम बिछड़ रहा है तू भटकेगा देखना
दिल में बसाया था तुझे गहराइयों के साथ
आया था दिल में सैंकड़ों अरमाँ लिए हुए
लौटा हूँ तेरे शहर से रुस्वाइयों के साथ
साया था वो तो झूठ अपना न बन सका
हमने तो की थी दोस्ती सच्चाइयों के साथ
गुज़री है सारी उम्र ग़मे-रोज़गार में
गुज़री है वो भी दोस्तो मँहगाइयों के साथ
</poem>