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08:18, 26 जनवरी 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=चाँद हादियाबादी
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<poem>
पराए ग़म को भी हम अपना ग़म समझते हैं
मगर जो कमनज़र हैं हमको कम समझते हैं
किसी की बात को सुनने का हौसला तो हो
जो बोलते हैं बहुत बात कम समझते हैं
ख़ुदा गवाह है सारा ज़माना जानता है
जो तेरी बात में दम है वो हम समझते हैं
न मिलता हमसे तो जाने कहाँ बुझा होता
तेरे चेहरे का नया हम जनम समझते हैं
ख़ुदा करे कि हमारे ही जैसे और भी हों
तुम्हारे हुस्न की अज़मत को हम समझते हैं
ये अबके काली घटाओं के गहरे साये में
जो हमपे गुज़री है ऐ ‘चाँद’ हम समझते हैं
जो साहिबाने बसीरत है संग में ऐ `चाँद’
छुपे हुए हैं अज़ल से सनम समझते हैं
</poem>