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एक चिकना मौन / अज्ञेय
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13:44, 2 फ़रवरी 2011
दाह खोती
लीन होती हैं ।
उसी में रवहीन
तेरा
गूँजता है छंद :
ऋत विज्ञप्त होता है ।
एक काले घोल की-सी रात
पुनीत
गहरी नींद की ।
उसी में से तू
बढ़ा कर हाथ
सहसा खींच लेता-
गले मिलता है ।
</poem>
अनिल जनविजय
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