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यह महाशून्य का शिविर / अज्ञेय
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10:32, 3 फ़रवरी 2011
रूपों में एक अरूप सदा खिलता है,
गोचर में एक अगोचर, अप्रमेय,
अनुभव
मॆम
में
एक अतीन्द्रिय,
पुरुषों के हर वैभव में ओझल
अपौरुषेय मिलता है ।
मैं एक, शिविर का
[
प्रहरी, भोर जगा
अपने को मौन नदी के खड़ा किनारे पाता हूँ :
मैं, मौन-मुखर, सब छंदों में
अनिल जनविजय
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