1,205 bytes added,
19:50, 4 फ़रवरी 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-१
|संग्रह=आमीन / आलोक श्रीवास्तव-१
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
इक हुनर है वो भी विरसे में मिला है
देख लीजे हाँथ में सब कुछ लिखा है
हिचकियाँ साँसों को जख्मी कर रही हैं
यूं मुझे फिर याद कोई कर रहा है
नींद की मासूम परियां चौंकाती हैं
एक बूढा ख़्वाब ऐसे खांसता है
चाँद से नजदीकियां बढ़ने लगी है
आदमी में फासला था फासला है
सांस की पगडंडियाँ भी खत्म समझो
अब यहाँ से सीधा सच्चा रास्ता है
मैं बदलते वक्त से डरता नहीं हूँ
कौन है जो मेरे अंदर कांपता है
</poem>