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04:58, 6 फ़रवरी 2011
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|रचनाकार=ज्ञान प्रकाश विवेक
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जब लगी भूख तो पाषाण चबाए उसने
अपने बच्चों के लिए पैसे बचाए उसने
आसमाँ धूप हवा छाँव परिंदे जुगनू
अपने घर में कई मेहमान बुलाए उसने
तू शिकारी की ज़रा देख दयानतदारी
परकटे जितने परिंदे थे उड़ाए उसने
वक़्त नादान -से बालक की तरह था यारो
मेरी गुल्लक से कई सिक्के चुराए उसने
बैठने के लिए मैं ढूँढ रहा था कुर्सी
फ़र्श पर धूप के अख़बार बिछाए उसने
प्यास के मारे हिरन को जो पिलाया पानी
एक ही पल में कई जश्न मनाए उसने
कहकशाँ उसकी चुरा कर मैं कहाँ पर रखता
मुझपे आरोप निराधार लगाए उसने
</poem>