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{{KKRachna
|रचनाकार=बशीर बद्र
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<poem>
किसे ख़बर थी तुझे इस तरह सजाऊंगा
ज़माना देखेगा और मैं न देख पाऊंगा

हयातों मौत फ़िराक़ों विसाल सब यकजा
मैं एक रात में कितने दीये जलाऊंगा

पला बढ़ा हूँ अभी तक इन्हीं अंधेरों में
मैं तेज़ धूप से कैसे नज़र मिलाऊंगा

मेरे मिज़ाज की ये मादराना फितरत है
सवेरे सारी अज़ीयत मैं भूल जाऊँगा

तुम एक पेड़ से वाबस्ता हो मगर मैं तो
हवा के साथ बहुत दूर-दूर जाऊँगा

मिरा ये अहद है मैं आज शाम होने तक
जहाँ से रिज़क लिखा है वहीँ से लाऊंगा



</poem>