Changes

{{KKCatKavita}}
<poem>
विशद उज्ज्वल उन्नत भाल में।विलसती कल केसर-खौर थी।असित - पंकज के दल में यथा।रज – सुरंजित पीत - सरोज की॥२१॥::मधुरता - मय था मृदु - बोलना।::अमृत – सिंचित सी मुस्कान थी।::समद थी जन – मानस मोहती।::कमल – लोचन की कमनीयता॥२२॥सबल-जानु विलंबित बाहु थी।अति – सुपुष्ट – समुन्नत वक्ष था।वय-किशोर-कला लसितांग था।मुख प्रफुल्लित पद्म समान था॥२३॥::सरस – राग – समूह सहेलिका।::सहचरी मन मोहन - मंत्र की।::रसिकता – जननी कल - नादिनी।::मुरलि थी कर में मधुवर्षिणी॥२४॥छलकती मुख की छवि-पुंजता।छिटकती क्षिति छू तन की घटा।बगरती बर दीप्ति दिगंत में।क्षितिज में क्षणदा-कर कांति सी॥२५॥::मुदित गोकुल की जन-मंडली।::जब ब्रजाधिप सम्मुख जा पड़ी।::निरखने मुख की छवि यों लगी।::तृषित-चातक ज्यों घन की घटा॥२६॥पलक लोचन की पड़ती न थी।हिल नहीं सकता तन-लोम था।छवि-रता बनिता सब यों बनी।उपल निर्मित पुत्तलिका यथा॥२७॥::उछलते शिशु थे अति हर्ष से।::युवक थे रस की निधि लूटते।::जरठ को फल लोचन का मिला।::निरख के सुषमा सुखमूल की॥२८॥बहु – विनोदित थीं ब्रज – बालिका।तरुणियाँ सब थीं तृण तोड़तीं।बलि गईं बहु बार वयोवती।छवि विभूति विलोक ब्रजेन्दु की॥२९॥::मुरलिका कर - पंकज में लसी।::जब अचानक थी बजती कभी।::तब सुधारस मंजु - प्रवाह में।::जन - समागम था अवगाहता॥३०॥ढिग सुसोभित श्रीबलराम थे।निकट गोप – कुमार – समूह था।विविध गातवती गरिमामयी।सुरभि थीं सब ओर विराजती॥३१॥::बज रहे बहु - शृंग - विषाण थे।::क्वणित हो उठता वर-वेणु था।::सरस – राग - समूह अलाप से।::रसवती - बन थी मुदिता – दिशा॥३२॥विविध – भाव – विमुग्ध बनी हुई।मुदित थी बहु दर्शक - मंडली।अति मनोहर थी बनती कभी।बज किसी कटि की कलकिंकिणी॥३३॥::इधर था इस भाँति समा बँधा।::उधर व्योम हुआ कुछ और ही।::अब न था उसमें रवि राजता।::किरण भी न सुशोभित थी कहीं॥३४॥अरुणिमा – जगती – तल – रंजिनी।वहन थी करती अब कालिमा।मलिन थी नव – राग-मयी – दिशा।अवनि थी तमसावृत हो रही॥३५॥::तिमिर की यह भूतल - व्यापिनी।::तरल – धार विकास – विरोधिनी।::जन – समूह – विलोचन के लिए।::बन गई प्रति – मूर्ति विराम की॥३६॥द्युतिमयी उतनी अब थी नहीं।नयन की अति दिव्य कनीनिका।अब नहीं वह थी अवलोकती।मधुमयी छवि श्री घनश्याम की॥३७॥::यह अभावुकता तम – पुंज की।::सह सकी न नभस्थल तारका।::वह विकाश – विवर्द्धन के लिए।::निकलने नभ मंडल में लगी॥३८॥तदपि दर्शक - लोचन - लालसा।फलवती न हुई तिलमात्र भी।यह विलोक विलोचन दीनता।सकुचने सरसीरुह भी लगे॥३९॥::खग – समूह न था अब बोलता।::विटप थे बहुत नीरव हो गए।::मधुर मंजुल मत्त अलाप के।::अब न यंत्र बने तरु - वृंद थे॥४०॥
</poem>
Delete, KKSahayogi, Mover, Protect, Reupload, Uploader
19,164
edits