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|रचनाकार=दाग़ देहलवी
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मुमकिन<ref>संभव</ref> नहीं कि तेरी मुहब्बत की बू न हो
काफ़िर अगर हज़ार बरस दिल में तू न हो

क्या लुत्फ़े-इन्तज़ार<ref>प्रतीक्षा का आनन्द</ref> जो तू हीला-जू<ref>बहाना करने वाला</ref> न हो
किस काम का विसाल<ref>मिलन</ref> अगर आरज़ू<ref>चाहत</ref> न हो

ख़लवत<ref>एकान्त</ref> में तुझको चैन नहीं किसका ख़ौफ़ है
अन्देशा कुछ न हो जो नज़र चार-सू<ref>चारों‍ ओर</ref> न हो

वो आदमी कहाँ है वो इन्सान है कहाँ
जो दोस्त का हो दोस्त अदू<ref>शत्रु</ref> का अदू न हो

दिल को मसल-मसल के ज़रा हाथ सूँघिये
मुमकिन नहीं कि ख़ूने-तमन्ना की बू न हो

ज़ाहिद<ref>उपदेशक</ref> मज़ा तो जब है अज़ाबो-सवाब<ref>पाप-पुण्य</ref> का
दोज़ख़<ref>नर्क</ref> में बादाकश<ref>शराबी</ref> न हों जन्नत<ref>स्वर्ग</ref> में तू न हो

माशूक़े-हिज्र<ref>विरह</ref> इससे ज़ियादा नहीं कोई
क्यों दिल्लगी रहे जो तेरी आरज़ू न हो

है लाग का मज़ा दिले-बेमुद्दआ<ref>नि:स्वार्थी</ref> के साथ
तुम क्या करो किसी को अगर आरज़ू न हो

ऐ ‘दाग़’ आ के फिर गए वो इसका क्या करें
पूरी जो नामुराद तेरी आरज़ू न हो
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