Changes

सुझाई गयी कविताएं

5,229 bytes removed, 20:02, 20 अगस्त 2006
यदि जिसने सुधारा है उस महोदय के पास महावीर प्रसाद द्विवेदी की वह कविता है तो फोटो कापी भेज दें । अन्यथा कृपया सुधार लें । मेरे पास द्विवेदी जी की वह किताब है जिसमें आर्य्य शब्द है न कि आर्य । हमें ऐसे महान रचनाकारों द्वारा दिये गये शीर्षक नहीं बदलना चाहिए । कृपया इसे अन्यथा न लें टीम के कर्ता-धर्ता गण क्योंकि मेरे पास कहने के लिए जगह और कहाँ है ? आप इसका परीक्षण करायें ।
जयप्रकाश मानस
 
0 मुख्य संपादक जी, कृपया "कवियों की सूची" नामक पेज में कवि उमाकांत मालविय के स्थान पर उमाकांत मालवीय सुधार लेवें । (जयप्रकाश मानस)
 
 
 
 
0 कुंवर नारायण की कविताएं
 
'''उत्केंद्रित ?'''
 
 
मैं ज़िंदगी से भागना नहीं
 
उससे जुड़ना चाहता हूँ । -
 
उसे झकझोरना चाहता हूँ
 
उसके काल्पनिक अक्ष पर
 
ठीक उस जगह जहाँ वह
 
सबसे अधिक बेध्य हो कविता द्वारा ।
 
 
 
उस आच्छादित शक्ति-स्त्रोत को
 
सधे हुए प्रहारों द्वारा
 
पहले तो विचलित कर
 
फिर उसे कीलित कर जाना चाहता हूँ
 
नियतिबद्ध परिक्रमा से मोड़ कर
 
पराक्रम की धुरी पर
 
एक प्रगति-बिन्दु
 
यांत्रिकता की अपेक्षा
 
मनुष्यता की ओर ज़्यादा सरका हुआ......
 
 
 
 
'''जन्म-कुंडली'''
 
फूलों पर पड़े पड़े अकसर मैंने
 
 
ओस के बारे में सोचा है –
 
किरणों की नोकों से ठहराकर
 
ज्योति-बिन्दु फूलों पर
 
किस ज्योतिर्विद ने
 
इस जगमग खगोल की
 
जटिल जन्म-कुंडली बनायी है ?
 
फिर क्यों निःश्लेष किया
 
अलंकरण पर भर में ?
 
एक से शुन्य तक
 
किसकी यह ज्यामितिक सनकी जमुहाई है ?
 
 
 
और फिर उनको भी सोचा है –
 
वृक्षों के तले पड़े
 
फटे-चिटे पत्ते-----
 
उनकी अंकगणित में
 
कैसी यह उधेडबुन ?
 
हवा कुछ गिनती हैः
 
गिरे हुए पत्तों को कहीं से उठाती
 
और कहीं पर रखती है ।
 
कभी कुछ पत्तों को डालों से तोड़कर
 
यों ही फेंक देती है मरोड़कर ..........।
 
 
 
कभी-कभी फैलाकर नया पृष्ठ – अंतरिक्ष-
 
गोदती चली जाती.....वृक्ष......वृक्ष......वृक्ष
 
 
 
 
'''अबकी बार लौटा तो'''
 
 
 
अबकी बार लौटा तो
 
बृहत्तर लौटूँगा
 
चेहरे पर लगाये नोकदार मूँछें नहीं
 
कमर में बाँधें लोहे की पूँछे नहीं
 
जगह दूँगा साथ चल रहे लोगों को
 
तरेर कर न देखूँगा उन्हें
 
भूखी शेर-आँखों से
 
 
 
अबकी बार लौटा तो
 
मनुष्यतर लौटूँगा
 
घर से निकलते
 
सड़को पर चलते
 
बसों पर चढ़ते
 
ट्रेनें पकड़ते
 
जगह बेजगह कुचला पड़ा
 
पिद्दी-सा जानवर नहीं
 
 
 
अगर बचा रहा तो
 
कृतज्ञतर लौटूँगा
 
 
 
अबकी बार लौटा तो
 
हताहत नहीं
 
सबके हिताहित को सोचता
 
पूर्णतर लौटूँगा
 
 
 
 
'''घर पहुँचना'''
 
 
 
हम सब एक सीधी ट्रेन पकड़ कर
 
अपने अपने घर पहुँचना चाहते
 
 
 
हम सब ट्रेनें बदलने की
 
झंझटों से बचना चाहते
 
 
 
हम सब चाहते एक चरम यात्रा
 
और एक परम धाम
 
 
 
हम सोच लेते कि यात्राएँ दुखद हैं
 
और घर उनसे मुक्ति
 
 
 
सचाई यूँ भी हो सकती है
 
कि यात्रा एक अवसर हो
 
और घर एक संभावना
 
 
 
ट्रेनें बदलना
 
विचार बदलने की तरह हो
 
और हम सब जब जहाँ जिनके बीच हों
 
वही हो
 
घर पहुँचना
 
 
कविः कुंवर नारायण
 
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस