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12:30, 24 फ़रवरी 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मयंक अवस्थी
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<poem>
तुझको सोचूँ तो फिर उस मोड़ पे सिन लगती है
पूस की रात जहाँ जेठ का दिन लगती है
तुमसे शरमा के मुहब्बत का भरम रखता हूँ
सच मगर ये है कि तुमसे मुझे घिन लगती है
तंज़ की राह पे चलने का मुझे शौक नहीं
तुमसे रिश्तों की डगर मुझको कठिन लगती है
उसकी चुटकी से भला दर्द मुझे क्योंकर हो
मुझको चुटकी में छुपाई हुई पिन लगती है
ये अदावत , ये हसद्, औ ये बरहना ख्वाहिश
दिल की बस्ती भी मुझे अब तो मलिन लगती है
ये ज़मीं चाँद से देखो तो किसी चाँद सी है
माँ तो रिश्ते में भी मामा की बहिन लगती है
ज़ारशाही है मेरे दिल पे मेरी बीवी की
और मेरी सास मुझे रासपुतिन लगती है
</poem>
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