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09:35, 25 फ़रवरी 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=दिनकर
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<poem>
'''राजकुमारी और बाँसुरी'''
राजमहल के वातायन पर बैठी राजकुमारी,
कोई विह्वल बजा रहा था नीचे वंशी प्यारी।
"बस, बस, रुको, इसे सुनकर मन भारी हो जाता है,
अभी दूर अज्ञात दिशा की ओर न उड़ पाता है।
::अभी कि जब धीरे-धीरे है डूब रहा दिनमान।"
राजमहल के वातायन पर बैठी राजकुमारी
नहीं बजाता था अब कोई विह्वल वंशी प्यारी।
"आह! बजाओ वंशी, रँग दो सुर से मेरे मन को,
अभी स्वप्न रंगीन लगेंगे उड़ने दूर विजन को।
::अभी कि जब धीरे-धीरे है डूब रहा दिनमान।"
राजमहल के वातायन पर बैठी राजकुमारी,
कोई विह्वल बजा रहा था करुण बाँसुरी प्यारी;
गोधुली आ गई, रूपसी फूट पड़ी क्रन्दन में,
"अभी कौन यह चाह देव! आ गई अचानक मन में?
::अभी कि जब धीरे-धीरे है डूब रहा दिनमान।"
</poem>