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तृतीय भाग 1944 से 1945 का है जबकि कवि मृत्यु को शाश्वत मानने लगता है। असह्य वेदना को सहते हुये उसे आत्म ज्ञान प्राप्त हो जाता है। ईश्वरीय आस्था के प्रति पूर्णरूपेण समर्पण का भाव उसमें व्याप्त होता है। सुख और दुख जीवन मृत्यु की सीमाओं से उपर उठा हुआ कवि इसमें प्रदर्शित होता है।(अशोक कुमार शुक्ला द्वारा संकलित)
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