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उपवन-दीप! दिवा के जुगनू! वन के दृग सुकुमार!
मेरी मृदु कल्पना-लहर-से पुलकाकुल, उद्‌भ्रान्त!
उर में म्चल मचल रहे लघु-लघु भावों-से कोमल-कान्त!
वृन्तों के दीपाधारों पर झिलमिल ज्योति पसार,
आलोकित कर रहे जाज आज क्यों अमापूर्ण संसार?
कहो, कहो, किन परियों को मुस्कानों में कर स्नान,
कहाँचन्द्रकिरणों कहाँ चन्द्र किरणों में धुल-धुल बने दिव्य, अम्लान?किस रुपहरी सरित में धो-धो किया वस्त्र प्रिधानपरिधान
चले ज्योति के किस वन को हे परदेशी अनजान?
मलयानिल के मृदु झोंकों में तनिक सिहर झुक-झूल
मन -ही -मन क्या सोच मौन रह जाते मेरे फूल?
निज सौरभ से सुरभित, अपनी आभा में द्युतिमान,
मुग्धा-से अपनी ही छवि पर भूल पड़े छविमान!
अपनी ही सुन्दरता पर विस्मित नव आँखें खॊलखोल,
हँसते झाँक-झाँक सरसी में निज प्रतिछाया लोल।
रच-से रहे स्वर्ग भूतल पर लुटा मुक्त आनन्द,
कवि को स्वप्न, अनिल को सौरभ, अलि को दे मकरन्द।
नभ के तारे दूर, अलब अलभ इस अतल जलधि के सीप,देव नहीं, हम मनु, इसी से, प्रिय तुम भीमिभूमि-प्रदीप।
गत जीवन का व्यथा न भावी का हो चिन्ता-क्लेश,
घाटी में रच दिया तुम्हीं से प्रभु ने मोहक देश।
करो, करो, ऊषा के कंचन-सर में वारि-विहार,
सूसोओ, रजनी के अंचल में सूसोओ, हे सुकुमार!
मादक! उफ! कितनी मादक है! ये कड़ियाँ, ये छन्द!
कुसुम, कहाँ जीवन में पाया यह अक्षय आनन्द?
क्या जानूँ जीवन में कैसा होता है आनन्द?
उर की दैवी व्यथा कहाती जग में आज प्रलाप,
कविता ही बन रही हाय! म्रे मेरे जीवन का शाप।
आशा के इंगित पर घुमा दर-दर हाथ पसार,