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सुझाई गयी कविताएं

16,941 bytes removed, 14:26, 8 सितम्बर 2006
एक सरल कृतज्ञता में बदल जाती ।
 
 
 
'''गले तक धरती में'''
 
 
 
गले तक धरती में गड़े हुए भी
 
सोच रहा हूँ
 
कि बँधे हों हाथ और पाँव
 
तो आकाश हो जाती है उड़ने की ताक़त
 
 
 
जितना बचा हूँ
 
उससे भी बचाये रख सकता हूँ यह अभिमान
 
कि अगर नाक हूँ
 
तो वहाँ तक हूँ जहाँ तक हवा
 
मिट्टी की महक को
 
हलकोर कर बाँधती
 
फूलों की सूक्तियों में
 
और फिर खोल देती
 
सुगन्धि के न जाने कितने अर्थों को
 
हज़ारों मुक्तियों में
 
 
 
कि अगर कान हूँ
 
तो एक धारावाहिक कथानक की
 
सूक्ष्मतम प्रतिध्वनियों में
 
सुन सकने का वह पूरा सन्दर्भ हूँ
 
जिसमें अनेक प्राथनाएँ और संगीत
 
चीखें और हाहाकार
 
आश्रित हैं एक केन्द्रीय ग्राह्यता पर
 
अगर ज़बान हूँ
 
तो दे सकता हूँ ज़बान
 
ज़बान के लिए तरसती ख़ामोशियों को –
 
शब्द रख सकता हूँ वहाँ
 
जहाँ केवल निःशब्द बैचैनी है
 
 
 
अगर ओंठ हूँ
 
तो रख सकता हूँ मुर्झाते ओठों पर भी
 
क्रूरताओं को लज्जित करती
 
एक बच्चे की विश्वासी हँसी का बयान
 
 
 
अगर आँखें हूँ
 
तो तिल-भर जगह में
 
भी वह सम्पूर्ण विस्तार हूँ
 
जिसमें जगमगा सकती है असंख्य सृष्टियाँ ....
 
 
 
गले तक धरती में गड़े हुए भी
 
जितनी देर बचा रह पाता है सिर
 
उतने समय को ही अगर
 
दे सकूँ एक वैकल्पिक शरीर
 
तो दुनिया से करोड़ों गुना बड़ा हो सकता है
 
एक आदमक़द विचार ।
 
 
 
'''भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में'''
 
 
 
प्लास्टिक के पेड़
 
नाइलॉन के फूल
 
रबर की चिड़ियाँ
 
 
 
टेप पर भूले बिसरे
 
लोकगीतों की
 
उदास लड़ियाँ.....
 
 
 
एक पेड़ जब सूखता
 
सब से पहले सूखते
 
उसके सब से कोमल हिस्से-
 
उसके फूल
 
उसकी पत्तियाँ ।
 
 
 
एक भाषा जब सूखती
 
शब्द खोने लगते अपना कवित्व
 
भावों की ताज़गी
 
विचारों की सत्यता –
 
बढ़ने लगते लोगों के बीच
 
अपरिचय के उजाड़ और खाइयाँ ......
 
 
 
सोच में हूँ कि सोच के प्रकरण में
 
किस तरह कुछ कहा जाय
 
कि सब का ध्यान उनकी ओर हो
 
जिनका ध्यान सब की ओर है –
 
 
 
कि भाषा की ध्वस्त पारिस्थितिकी में
 
आग यदि लगी तो पहले वहाँ लगेगी
 
जहाँ ठूँठ हो चुकी होंगी
 
अपनी ज़मीन से रस खींच सकनेवाली शक्तियाँ ।
 
 
 
'''बात सीधी थी पर'''
 
 
 
बात सीधी थी पर एक बार
 
भाषा के चक्कर में
 
ज़रा टेढ़ी फँस गई ।
 
 
 
उसे पाने की कोशिश में
 
भाषा को उलटा पलटा
 
तोड़ा मरोड़ा
 
घुमाया फिराया
 
कि बात या तो बने
 
या फिर भाषा से बाहर आये-
 
लेकिन इससे भाषा के साथ साथ
 
बात और भी पेचीदा होती चली गई ।
 
 
 
सारी मुश्किल को धैर्य से समझे बिना
 
मैं पेंच को खोलने के बजाय
 
उसे बेतरह कसता चला जा रहा था
 
क्यों कि इस करतब पर मुझे
 
साफ़ सुनायी दे रही थी
 
तमाशाबीनों की शाबाशी और वाह वाह ।
 
 
 
आख़िरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था –
 
ज़ोर ज़बरदस्ती से
 
बात की चूड़ी मर गई
 
और वह भाषा में बेकार घूमने लगी ।
 
 
 
हार कर मैंने उसे कील की तरह
 
उसी जगह ठोंक दिया ।
 
ऊपर से ठीकठाक
 
पर अन्दर से
 
न तो उसमें कसाव था
 
न ताक़त ।
 
 
 
बात ने, जो एक शरारती बच्चे की तरह
 
मुझसे खेल रही थी,
 
मुझे पसीना पोंछती देख कर पूछा –
 
“क्या तुमने भाषा को
 
सहूलियत से बरतना कभी नहीं सीखा ?”
 
 
 
 
 
'''घबरा कर'''
 
 
 
वह किसी उम्मीद से मेरी ओर मुड़ा था
 
लेकिन घबरा कर वह नहीं मैं उस पर भूँक पड़ा था ।
 
 
 
ज़्यादातर कुत्ते
 
पागल नहीं होते
 
न ज़्यादातर जानवर
 
हमलावर
 
ज़्यादातर आदमी
 
डाकू नहीं होते
 
न ज़्यादातर जेबों में चाकू
 
 
 
ख़तरनाक तो दो चार ही होते लाखों में
 
लेकिन उनका आतंक चौकता रहता हमारी आँखों में ।
 
 
 
मैंने जिसे पागल समझ कर
 
दुतकार दिया था
 
वह मेरे बच्चे को ढूँढ रहा था
 
जिसने उसे प्यार दिया था।
 
 
 
'''आँकड़ों की बीमारी'''
 
 
 
एक बार मुझे आँकड़ों की उल्टियाँ होने लगीं
 
गिनते गिनते जब संख्या
 
करोड़ों को पार करने लगी
 
मैं बेहोश हो गया
 
 
 
होश आया तो मैं अस्पताल में था
 
खून चढ़ाया जा रहा था
 
आँक्सीजन दी जा रही थी
 
कि मैं चिल्लाया
 
डाक्टर मुझे बुरी तरह हँसी आ रही
 
यह हँसानेवाली गैस है शायद
 
प्राण बचानेवाली नहीं
 
तुम मुझे हँसने पर मजबूर नहीं कर सकते
 
इस देश में हर एक को अफ़सोस के साथ जीने का
 
पैदाइशी हक़ है वरना
 
कोई माने नहीं रखते हमारी आज़ादी और प्रजातंत्र
 
 
 
बोलिए नहीं - नर्स ने कहा - बेहद कमज़ोर हैं आप
 
बड़ी मुश्किल से क़ाबू में आया है रक्तचाप
 
 
 
डाक्टर ने समझाया - आँकड़ों का वाइरस
 
बुरी तरह फैल रहा आजकल
 
सीधे दिमाग़ पर असर करता
 
भाग्यवान हैं आप कि बच गए
 
कुछ भी हो सकता था आपको –
 
 
 
सन्निपात कि आप बोलते ही चले जाते
 
या पक्षाघात कि हमेशा कि लिए बन्द हो जाता
 
आपका बोलना
 
मस्तिष्क की कोई भी नस फट सकती थी
 
इतनी बड़ी संख्या के दबाव से
 
हम सब एक नाज़ुक दौर से गुज़र रहे
 
तादाद के मामले में उत्तेजना घातक हो सकती है
 
आँकड़ों पर कई दवा काम नहीं करती
 
शान्ति से काम लें
 
अगर बच गए आप तो करोड़ों में एक होंगे .....
 
 
 
अचानक मुझे लगा
 
ख़तरों से सावधान कराते की संकेत-चिह्न में
 
बदल गई थी डाक्टर की सूरत
 
और मैं आँकड़ों का काटा
 
चीख़ता चला जा रहा था
 
कि हम आँकड़े नहीं आदमी हैं
 
 
 
'''किसी पवित्र इच्छा की घड़ी में'''
 
 
व्यक्ति को
 
विकार की ही तरह पढ़ना
 
जीवन का अशुद्ध पाठ है।
 
 
 
वह एक नाज़ुक स्पन्द है
 
समाज की नसों में बन्द
 
जिसे हम किसी अच्छे विचार
 
या पवित्र इच्छा की घड़ी में भी
 
पढ़ सकते हैं ।
 
 
 
समाज के लक्षणों को
 
पहचानने की एक लय
 
व्यक्ति भी है,
 
अवमूल्यित नहीं
 
पूरा तरह सम्मानित
 
उसकी स्वयंता
 
अपने मनुष्य होने के सौभाग्य को
 
ईश्वर तक प्रमाणित हुई !
 
 
 
 
 
'''दूसरी तरफ़ उसकी उपस्थिति'''
 
 
 
 
 
वहाँ वह भी था
 
जैसे किसी सच्चे और सुहृद
 
शब्द की हिम्मतों में बँधी हुई
 
एक ढीक कोशिश.......
 
 
 
जब भी परिचित संदर्भों से कट कर
 
वह अलग जा पड़ता तब वही नहीं
 
वह सब भी सूना हो जाता
 
जिनमें वह नहीं होता ।
 
 
 
उसकी अनुपस्थिति से
 
कहीं कोई फ़र्क न पड़ता किसी भी माने में,
 
लेकिन किसी तरफ़ उसकी उपस्थिति मात्र से
 
एक संतुलन बन जाता उधर
 
जिधर पंक्तियाँ होती, चाहे वह नहीं ।
 
 
 
 
 
'''उनके पश्चात्'''
 
 
 
कुछ घटता चला जाता है मुझमें
 
उनके न रहने से जो थे मेरे साथ
 
 
 
मैं क्या कह सकता हूँ उनके बारे में, अब
 
कुछ भी कहना एक धीमी मौत सहना है।
 
 
 
हे दयालु अकस्मात्
 
ये मेरे दिन हैं ?
 
या उनकी रात ?
 
 
 
मैं हूँ कि मेरी जगह कोई और
 
कर रहा उनके किये धरे पर ग़ौर ?
 
मैं और मेरी दुनिया, जैसे
 
कुछ बचा रह गया हो उनका ही
 
उनके पश्चात्
 
 
 
ऐसा क्या हो सकता है
 
उनका कृतित्व-
 
उनका अमरत्व -
 
उनका मनुष्यत्व-
 
ऐसा कुछ सान्त्वनीय ऐसा कुछ अर्थवान
 
जो न हो केवल एक देह का अवसान ?
 
 
 
ऐसा क्या कहा जा सकता है
 
किसी के बारे में
 
जिसमें न हो उसके न-होने की याद ?
 
 
 
सौ साल बाद
 
परस्पर सहयोग से प्रकाशित एक स्मारिका,
 
पारंपरिक सौजन्य से आयोजित एक शोकसभा :
 
 
 
किसी पुस्तक की पीठ पर
 
एक विवर्ण मुखाकृति
 
विज्ञापित
 
एक अविश्वसनीय मुस्कान !
 
 
 
 
 
'''यक़ीनों की जल्दबाज़ी से'''
 
 
 
एक बार ख़बर उड़ी
 
कि कविता अब कविता नहीं रही
 
और यूँ फैली
 
कि कविता अब नहीं रही !
 
 
 
यक़ीन करनेवालों ने यक़ीन कर लिया
 
कि कविता मर गई,
 
लेकिन शक़ करने वालों ने शक़ किया
 
कि ऐसा हो ही नहीं सकता
 
और इस तरह बच गई कविता की जान
 
 
 
ऐसा पहली बार नहीं हुआ
 
कि यक़ीनों की जल्दबाज़ी से
 
महज़ एक शक़ ने बचा लिया हो
 
किसी बेगुनाह को ।
 
 
 
'''कविता'''
 
 
 
कविता वक्तव्य नहीं गवाह है
 
कभी हमारे सामने
 
कभी हमसे पहले
 
कभी हमारे बाद
 
 
 
कोई चाहे भी तो रोक नहीं सकता
 
भाषा में उसका बयान
 
जिसका पूरा मतलब है सचाई
 
जिसका पूरी कोशिश है बेहतर इन्सान
 
 
 
उसे कोई हड़बड़ी नहीं
 
कि वह इश्तहारों की तरह चिपके
 
जुलूसों की तरह निकले
 
नारों की तरह लगे
 
और चुनावों की तरह जीते
 
 
 
वह आदमी की भाषा में
 
कहीं किसी तरह ज़िन्दा रहे, बस
 
 
 
'''कविता की ज़रूरत'''
 
 
 
 
 
बहुत कुछ दे सकती है कविता
 
क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
 
ज़िन्दगी में
 
 
 
अगर हम जगह दें उसे
 
जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
 
जैसे तारों को जगह देती है रात
 
 
 
हम बचाये रख सकते हैं उसके लिए
 
अपने अन्दर कहीं
 
ऐसा एक कोना
 
जहाँ ज़मीन और आसमान
 
जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी
 
कम से कम हो ।
 
 
 
वैसे कोई चाहे तो जी सकता है
 
एक नितान्त कवितारहित ज़िन्दगी
 
कर सकता है
 
कवितारहित प्रेम
 
 
 
 
 
कविः कुंवर नारायण की कविताएँ
 
प्रस्तुतिः जयप्रकाश मानस