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07:58, 1 मार्च 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=दिनकर
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<poem>
'''जीवन संगीत'''
कंचन थाल सजा सौरभ से
ओ फूलों की रानी!
अलसाई-सी चली कहो,
करने किसकी अगवानी?
::वैभव का उन्माद, रूप की
::यह कैसी नादानी!
::उषे! भूल जाना न ओस की
::कारुणामयी कहानी।
ज़रा देखना गगन-गर्भ में
तारों का छिप जाना;
कल जो खिले आज उन फूलों
का चुपके मुरझाना।
::रूप-राशि पर गर्व न करना,
::जीवन ही नश्वर है;
::छवि के इसी शुभ्र उपवन में
::सर्वनाश का घर है।
सपनों का यह देश सजनि!
किसका क्या यहाँ ठिकाना?
पाप-पुण्य का व्यर्थ यहाँ
बुनते हम ताना-बाना।
::प्रलय-वृन्त पर डोल रहा है
::यह जीवन दीवाना,
::अरी, मौत का निःश्वासों से
::होगा मोल चुकाना।
सर्वनाश के अट्टहास से
गूँज रहा नभ सारा;
यहाँ तरी किसकी छू सकती
वह अमरत्व-किनारा?
::एक-एक कर डुबो रहा
::नावों को प्रलय अकेला,
::और इधर तट पर जुटता है
::वैभव-मद का मेला।
सृष्टि चाट जाने को बैठी
निर्भय मौत अकेली;
जीवन की नाटिका सजनि! है
जग में एक पहेली।
::यहाँ देखता कौन कि यह
::नत-मस्तक, वह अभिमानी?
::उठता एक हिलोर, डूबते
::पंडित औ अज्ञानी।
यह संग्रह किस लिए? हाय,
इस जग में क्या अक्षय है?
अपने क्रूर करों से छूता
सब को यहाँ प्रलय है।
::लो, वह देखो, वीर सिकन्दर
::सारी दुनिया छोड़,
::दो गज़ ज़मीं ढूँढ़ने को
::चल पड़ा कब्र की ओर।
सोमनाथ-मंदिर का सोना
ताक रहा है राह,
ओ महमूद! कब्र से उठकर
पहनो जरा सनाह।
::सुनते नहीं रूस से लन्दन
::तक की यह ललकार?
::बोनापार्ट! हिलेना में
::सोये क्यों पाँव पसार?
और, गाल के फूलों पर क्यों
तू भूली अलबेली?
बिना बुलाये ही आती
होगी वह मौत सहेली।
::सुंदरता पर गर्व न करना
::ओ स्वरूप की रानी!
::समय-रेत पर उतर गया
::कितने मोती का पानी।
रंथी-रथ से उतर चिता
का देखोगी संसार,
जरा खोजना उन लपटों में
इस यौवन का सार।
::प्रिय-चुम्बित यह अधर और
::उन्नत उरोज सुकुमार सखी!
::आज न तो कल श्वान-शृगालों
::के होंगे आहार सखी!
दो दिन प्रिय की मधुर सेज पर
कर लो प्रणय-विहार सखी?
चखना होगा तुम्हें एक दिन
महाप्रलय का प्यार सखी!
::जीवन में है छिपा हुआ
::पीड़ाओं का संसार सखी!
::मिथ्या राग अलाप रहे हैं
::इस तंत्री के तार सखी!
जिस दिन माँझी आयेगा
ले चलने को उस पार सखी!
यह मोहक जीवन देना
होगा उसको उपहार सखी!
::जीवन के छोटे समुद्र में
::बसी प्रलय की ज्वाला,
::अमिय यहीं है और यहीं
::वह प्राण-घातिनी हाला।
इस चाँदनी बाद आयेगा
यहाँ विकट अँधियाला,
यही बहुत है, छलक न पाया
जो अब तक यह प्याला।
::हरा-भरा रह सका यहाँ पर
::नहीं किसी का बाग सखी!
::यहाँ सदा जलती रहती है
::सर्वनाश की आग सखी!
१९३३
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