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01:06, 3 मार्च 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खिलेंगे / आलोक श्रीवास्तव-२
}}
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<Poem>
एक फिजूल-सा शब्द
बहुत मानीखेज हो उठा है
ज़िंदगी रगों में बहती है
बहार के मौसम की तरह
तुम आई हो
तो फिर से गुजरी उम्र जी लेने का
मन हो उठा है ।
उन सब दास्तानों पर यक़ीन बैठने लगा है
जिनमें हर तिलिस्म आखिर में टूट जाता था
उफनती नदियाँ, बीहड़ जंगल
अंधेरी वादियाँ, जादुई वीराने
और अजाब
खला में घुल जाते थे
और एक धुन लहरा उठती पहाड़ों पर
एक फूल अपनी गमक बिखरा देता
रात की वही गुंजलकें हैं अब भी
एक गहरा तिलिस्म
एक अजब बियाबान
पर तुम्हारे होने का यकीन
रगों में दीपक बाल गया है
एक फिजूल सा सपना
और कायनात
सूरज, चाँद और धरती-समंदर की
ताबीर में खोती गयी है ....
</poem>