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06:14, 3 मार्च 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=दिनकर
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'''समाधि के प्रदीप से'''
तुम जीवन की क्षण-भंगुरता के सकरुण आख्यान!
तुम विषाद की ज्योति! नियति की व्यंग्यमयी मुस्कान!
अरे, विश्व-वैभव के अभिनय के तुम उपसंहार!
मन-ही-मन इस प्रलय-सेज पर गाते हो क्या गान?
::तुम्हारी इस उदास लौ-बीच
::मौन रोता किसका इतिहास?
::कौन छिप क्षीण शिखा में दीप!
::सृष्टि का करता है उपहास?
इस धूमिल एकांत प्रांत में नभ से बारंबार
पूछ-पूछ कर कौन खोजता है जीवन का सार?
और कौन यह क्षीण-ज्योति बन कहता है चुपचाप
‘अरे! कहूँ क्या? अबुध सृष्टि का एक अर्थ संहार’।
::दीप! यह भूमि-गर्भ गम्भीर
::बना है किस विरही का धाम?
::तुम्हारी सेज-तले दिन-रात
::कौन करता अनन्त विश्राम?
कौन निठुर, रोती माँ की गोदी का छोड़ दुलार,
इस समाधि के प्रलय-भवन में करता स्वप्न-विहार?
अरे, यहाँ किस शाहजहाँ की सोती है मुमताज?
यहाँ छिपी किस जहाँगीर की नूरजहाँ सुकुमार?
::हाय रे! परिवर्त्तन विकराल,
::सुनहरी मदिरा है वह कहाँ?
::मुहब्बत की वे आँखें चार?
::सिहरता, शरमीला चुम्बन,
::कहाँ वह सोने का संसार?
::कहाँ मखमली हरम में आज
::मधुर उठती संगीत-हिलोर?
::शाह की पृथुल जाँघ पर कहाँ
::सुन्दरी सोती अलस-विभोर?
::झाँकता उस बिहिश्त में कहाँ
::खिड़कियों से लुक-छिप महताब!
::इन्द्रपुर का वह वैभव कहाँ?
::कहाँ जिस्मे-गुल, कहाँ शराब?
कहाँ नवाबी महलों का वह स्वर्गिक विभव-वितान?
(नश्वर जग में अमर-पुरी की ऊषा की मुसकान।),
सुन्दरियों के बीच शाहजादों का रुप-विलास,
अरे कहाँ गुल-बदन और गुल से हँसता उद्यान?
कितने शाह, नवाब ज़मीं में समा चुके, है याद?
शरण खोजते आये कितने रुस्तम औ’ सोहराब?
कितनी लैला के मजनूँ औ’ शीरीं के फरहाद,
मर कर कितने जहाँगीर ने किया इसे आबाद?
अपनी प्रेयसि के कर से पाने को दीपक-दान
इस खँडहर की ओर किया किन-किन ने है प्रस्थान?
औ’ कितने याकूब यहाँ पर ढूँढ़ चुके निर्वाण?
तुम्हें याद है अरी, नियति की व्यंग्यमयी मुसकान!
हँसते हो, हाँ हँसो, अश्रुमय है जीवन का हास,
यहाँ श्वास की गति में गाता झूम-झूमकर नाश।
क्या है विश्व? विनश्वरता का एक चिरन्तन राग,
हँसो, हँसो, जीवन की क्षण-भंगुरता के इतिहास!
::न खिलता उपवन में सुकुमार
::सुमन कोई अक्षय छविमान,
::क्षणिक निशि का हीरक-शृंगार,
::उषा की क्षण-भंगुर मुसकान।
::हास का अश्रु-साथ विनिमय,
::यही है जग का परिवर्त्तन,
::मिलन से मिलता यहाँ वियोग,
::मृत्यु की कीमत है जीवन।
कभी चाँदनी में कुंजों की छाया में चुपचाप
जिस ‘अनार’ को गोद बिठा करते थे प्रेमालाप
आज उसी गुल की समाधि को देकर दीपक-दान
व्यथित ‘सलीम’ लिपट ईंटों से रोते बाल-समान।
यही शाप मधुमय जीवन पाने का है परिणाम,
हँसो, हँसो, हाँ हँसो, नियति की व्यंग्यमयी मुसकान!
१९३१
अनारकली फिल्म देखकर
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