डायरी के पृष्ठ पर अंकित तिथि 6 मार्च, 1938
चन्द्रकुंवर बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे। हिन्दी साहिन्य के भण्डार की समृद्वि और हिन्दी काव्य जगत मंे उनका योगदान विशेष उल्लेखनीय है। हिमालय का सौंदर्य और उसके विविध चित्र उनके काव्य में यत्र तत्र अनायास ही बिखरे मिल जाते है। वे मूलतः कवि थे। इसलिये गीत और कवितायंे उन्होने मुख्य रूप से लिखी हैं। अव तक उपलब्ध और अन्वेषित रचनाओं के आधार पर कह जा सकता है कि उन्होने लगभग आठ सैा से अधिक गीत ओर कवितायें लिखी । इसके अतिरिक्त करीब 25 से अधिक गद्य रचनायें की , जिनमें कहानी, एकांकी, निबन्ध एवं आलोचनाऐं प्रमुख हैं।
महाकवि सुमित्रानन्दन पन्त और महाप्राण निराला से भी चन्द्र कुवर बर्त्वाल की धनिष्ठता थी। '''उत्तराखण्ड भारती त्रैमासिक''' जनवरी से मार्च 1973 के पृष्ठ 67 में यह अंकित है कि वे निराला जी के साथ तो 1939 से 1942 तक अपना सधर्षमय जीवन उनके पास रहकर बिताया था । दिसम्बर 1941 में जब श्री बर्त्वाल पहाडों की ओर वापिस लौट आये थे तो उन्होंने महाप्राण निरला को कविता में लिखकर एक पत्र प्रेषित किया था जो गढवाल विश्वविद्यालय में डा0 हर्षमणि भट्ट के द्वारा निष्पादित शोध प्रबंध में उद्धृत हुआ है। यह पूर्णतः कविता मय पत्र मृत्यंुजय इस प्रकार हैः-
हे महाप्राण
(यह पत्र पं0 शम्भू प्रसाद बहुगुणा द्वारा संपादित ‘मेघ नंदिनी’ के पृष्ठ 101 से साभार उदृधृत किया गया है)
लखनऊ से वापिस लौटकर राजयक्ष्मा से अपनी रूग्णता के पांच छः वर्ष पंवालिया में बिताने के दौरान श्री बर्त्वाल ने अपनी रचनाओं में मुख्य रूप से अपनी शारीरिक पीडा और विरह वेदना के स्वर को ही मुखर किया। साहित्यकार मंगलेश डबराल उनके संबंध में लिखते हैः- ‘‘ कई साल पहले पडी चंद्र कुंवर बर्त्वाल की दो पंक्तियां- ‘अपने उद्गम को लौट रही, जीवन की नदियां मेरी’ आज भी मुझे विचलित कर देती हैं।’’