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04:26, 9 मार्च 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=मासूम गाज़ियाबादी
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<poem>
सलीके गाँव में ही गाँव वाले छोड़ आया था
शहर आया तो सब अदबी रिसाले छोड़ आया था
कई दिन तक तो रह रह कर बरसती ही रही होंगी
वो जिन आँखों को मैं कुछ खाब पाले छोड़ आया था
मकाँ पुरखों का बेच आया यहाँ बसने की ख्वाहिश में
मैं बूढी माँ को कुदरत के हवाले छोड़ आया था
अभी तक राह तकती है शहर और गाँव की हद पर
वो जिस गैरत के पांवों में मैं छाले छोड़ आया था
मैं अब रहमो करम की रौशनी में साँस लेता हूँ
कभी गाँवों के तहजीबी उजाले छोड़ आया था
वहीं 'मासूम' लब जो थरथरा कर रह गए थे बस
रुलाते हैं जिन्हें बे बोले चाले छोड़ आया था
<poem>