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01:51, 11 मार्च 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=चंद्र रेखा ढडवाल
|संग्रह=
}}
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<poem>
जीती मरती दिन रात खटती
एड़ियाँ रगड़ती
इस विश्वास को पालते
कि कुछ भी कह ले
छत सूई की नोंक भर भी
उसकी ओर लपकेगी नहीं
कुछ भी कह ले
ज़मीन ज़रा-सी
भी धँसेगी नहीं
पर लपकती है छत
धँसती है ज़मीन
चिमनी के धुँए सँग
चिथड़ा-चिथड़ा बिखरती
और कभी ताबूत में
होती है औरत
</poem>