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विनयावली / तुलसीदास / पृष्ठ 13

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'''पद 121 से 130 तक'''
तुलसी (121) श्री हे हरि! यह प्रभु की अधिकाई।  देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई।  जो जग मृषा ताप -त्रय- अनुभव होइ कहहु केहि लेखे।  कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे।।  सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै।  कोटिहूँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै।।  अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी।  सम-संतोष-दया-बिबेेक तें, ब्यवहारी सुखकारी।।  तुलसिदास सब बिधि प्रपन्च जग, जदपि झूठ श्रुति गावै। रधुपति- भगति, संत-संतति बिनु, को भव-त्रास नसावै।।
</poem>
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