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(205)
 जेा न भज्यो चहै हरि-सुरतरू।
तौ तज बिषय-बिकार, सार भज, अजहूँ जो मैं कहौं सोइ करू।
 
सम, संतोष, बिचार बिमल अति, सतसंगति, ये चारि दृढ़ करि धरू।
 
काम-क्रोध अरू लोभ-मोह-मद, राग-द्वेष निसेष करि परिहरू।।
 
श्रवन कथा, मुख नाम, हृदय हरि सिर प्रनाम, सेवा कर अनुसरू।
 
नयननि निरखि कृपा-समुद्र हरि अग-जग-रूप भूप सीताबरू।।
 
इहै भगति, बैराग्य यह, हरि-तोषन यह सुभ ब्रत आचरू।
 
तुलसिदास सिव-मत मारग यहि चलत सदा सपनेहुँ नाहिंन डरू।।
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