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09:44, 16 मार्च 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=दिनकर
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<poem>
'''रहस्य'''
तुम समझोगे बात हमारी?
::::[१]
::उडु-पुंजों के कुंज सघन में,
::भूल गया मैं पन्थ गगन में,
जगे-जगे, आकुल पलकों में बीत गई कल रात हमारी।
::::[२]
अस्तोदधि की अरुण लहर में,
पूरब-ओर कनक-प्रान्तर में,
रँग-सी रही पंख उड़-उड़कर तृष्णा सायं-प्रात हमारी।
::::[३]
::सुख-दुख में डुबकी-सी देकर,
::निकली वह देखो, कुछ लेकर,
श्वेत, नील दो पद्म करों में, सजनी सध्यःस्नात हमारी।
</poem>