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{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खिलेंगे / आलोक श्रीवास्तव-२
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<Poem>
हवाएं तुम्हारा आंचल छूती हैं
और गुजर जाती हैं

तुम्हारे बालों को उड़ाती
चुपचाप होठों को छूती ये हवायें
नहीं जानती तुममें कौन-सा
जादू छिपा है

चट्टानों पर बिखरती लहरें
तुम्हें भिगोती
लौट जाती हैं समुद्र में बहुत दूर ...

पता नहीं है लहरों को
कि तुम क्यों इतनी खूबसूरत हो

दरख़्त का एक अटका पत्ता
सहसा तुम्हारी हथेली छूता
किसी दिशा में उड़ जाता है

तुम्हें प्यार नहीं करता सूरज
पर तुम्हारी आँखो में डूबता है

तुम्हारे हाथों पर
बारिश की, हवा की, धूप की
लहरों की, फूलों की
कितनी खुशबुएं हैं ....
सिर्फ मै
तुम्हारी हथेली नहीं छू सकता
सिर्फ मैं -
जो तुम्हें प्यार करता हूँ ।

.... और हवाएं तुम्हें छूती
गुज़र जाती हैं ... ।
</poem>
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