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कवितावली/ तुलसीदास / पृष्ठ 17

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'''(लंकादहन )'''
बसन बटोरि बोरि-बोरि तेल तमीचर,
खोरि-खोरि धाइ आइ बाँधत लँगूर हैं।
तैसो कपि कौतुकी डेरात ढीले गात कै-कै,  लातके अधात सहै, जीमें कहै, कूर हैं।।  बाल किलकारी कै-कै, तारी दै-दै गारी देत,  पाछें लागे, बाजत निसान ढोल तूर हैं।।  बालधी बढ़न लागी, ठौर -ठौर दीन्हीं आगी, बिंधकी दवारि कैधौं कोटिसत सूर हैं।3।   लाइ-लाइ आगि भागे बालजाल जहाँ तहाँ,  लघु ह्वै निबुकि गिरि मेरूतें बिसाल भो।  कौतुकी कपीसु कुदि कनक-कँगूराँ चढ्यो,  रावन-भवन चढ़ि ठाढ़ेा तेहि काल भो।।  ‘तुलसी’ विराज्यो ब्योम बालधी पसारि भारी,  देखें हहरात भट, कालु सो कराल भो।।  तेजको निदानु मानेा कोटिक कृसानु-भानु,  नख बिकराल, मुखु तेसो रिस लाल भो।4।  बालसी बिसाल बिकराल, ज्वालजाल मानो ।  लंक लीलिबेको काल रसना पसारी हैं।  कैधों ब्योमबीधिका भरे हैं भूरि धूमकेतु,  बीररस बीर तरवारि सो उधारी है।  ‘तुलसी’ सुरेस-चापु, कैधों दामिनि-कलापु, कैंधों चली मेरू तें कृसानु-सरि भारी है।  देखें जातुधान-जातुधानीं अकुलानी कहैं,  काननु उजार्यो, अब नगरू प्रजारिहैं।5।   जहाँ-तहाँ बुबुक बिलोकि बुबुकारी देत,  जरत निकेत, धावौ, धावौ लागी आगि रे।।  कहाँ तातु-मातु, भ्रात-भगिनी, भामिनी-भाभी,  ढोटा छोटे छोहरा अभागे भोंडे भागि रे।।  हाथी छोरौ, घोरा छोरौ, महिष बृषभ छोरौ,  छेरि छोरौ, सोवै सो जगावौ , जागि, जागि रे।।   ‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानीं कहैं, बार-बार कह्यौं , प्रिय! क्पिसों न लागि रे।6।
</poem>
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