'''(लंकादहन )'''
बसन बटोरि बोरि-बोरि तेल तमीचर,
खोरि-खोरि धाइ आइ बाँधत लँगूर हैं।
तैसो कपि कौतुकी डेरात ढीले गात कै-कै, लातके अधात सहै, जीमें कहै, कूर हैं।। बाल किलकारी कै-कै, तारी दै-दै गारी देत, पाछें लागे, बाजत निसान ढोल तूर हैं।। बालधी बढ़न लागी, ठौर -ठौर दीन्हीं आगी, बिंधकी दवारि कैधौं कोटिसत सूर हैं।3। लाइ-लाइ आगि भागे बालजाल जहाँ तहाँ, लघु ह्वै निबुकि गिरि मेरूतें बिसाल भो। कौतुकी कपीसु कुदि कनक-कँगूराँ चढ्यो, रावन-भवन चढ़ि ठाढ़ेा तेहि काल भो।। ‘तुलसी’ विराज्यो ब्योम बालधी पसारि भारी, देखें हहरात भट, कालु सो कराल भो।। तेजको निदानु मानेा कोटिक कृसानु-भानु, नख बिकराल, मुखु तेसो रिस लाल भो।4। बालसी बिसाल बिकराल, ज्वालजाल मानो । लंक लीलिबेको काल रसना पसारी हैं। कैधों ब्योमबीधिका भरे हैं भूरि धूमकेतु, बीररस बीर तरवारि सो उधारी है। ‘तुलसी’ सुरेस-चापु, कैधों दामिनि-कलापु, कैंधों चली मेरू तें कृसानु-सरि भारी है। देखें जातुधान-जातुधानीं अकुलानी कहैं, काननु उजार्यो, अब नगरू प्रजारिहैं।5। जहाँ-तहाँ बुबुक बिलोकि बुबुकारी देत, जरत निकेत, धावौ, धावौ लागी आगि रे।। कहाँ तातु-मातु, भ्रात-भगिनी, भामिनी-भाभी, ढोटा छोटे छोहरा अभागे भोंडे भागि रे।। हाथी छोरौ, घोरा छोरौ, महिष बृषभ छोरौ, छेरि छोरौ, सोवै सो जगावौ , जागि, जागि रे।। ‘तुलसी’ बिलोकि अकुलानी जातुधानीं कहैं, बार-बार कह्यौं , प्रिय! क्पिसों न लागि रे।6।
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