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11:42, 27 मार्च 2011 पस ए पर्दा किसी ने मेरे अरमानों की महफ़िल को
कुछ इस अंदाज़ से देखा कुछ ऐसे तौर से देखा
ग़ुबार ए आह से देकर जिला आइना ए दिल को
हर इक सूरत को मैंने ख़ूब देखा गौर से देखा
नज़र आई न वो सूरत मुझे जिसकी तमन्ना थी
बहुत ढूँढा किया गुलशन में वीराने में बस्ती में
मुन्नवर शमअ ए मेहर ओ माह से दिन रात दुनिया थी
मगर चारों तरफ़ था घुप अँधेरा मेरी हस्ती में
दिल ए मजबूर को मजरूह ए उल्फ़त कर दिया किसने
मेरे अहसास की गहराईयों में है चुभन ग़म की
मिटा कर जिस्म मेरी रूह को अपना लिया किसने
जवानी बन गई आमाजगाह सदमात ए पैहम की
हिजाबात ए नज़र का सिलसिला तोड़ और आ भी जा
मुझे इक बार अपना जलवा ए रंगीं दिखा भी जा