वृन्द कवि का वास्तविक नाम वृन्दावनदास था़। वृन्द जाति के सेवक अथवा भोजक थे। वृन्द के पूर्वज बीकानेर के मूल निवासी रहने वाले थे परन्तु इनके पिता रूप जी जोधपुर के राज्यान्तर्गत मेड़ते में जा बसे थे। इनका पूरा वहीं सन् १६४३ में वृन्द का जन्म हुआ था। वृन्द की माता का नाम वृन्दावन कौशल्या आर पत्नी का नाम नवरंगदे था। दस वर्ष की अवस्था में ये औरगज़ेब के पुत्र मुअज्जम काशी आये और पौत्र अज्जीमुश्शान तारा जी नामक एक पंडित के शिक्षक थे। कुछ समय बाद इन्हें पास रहकर व॓न्द ने साहित्य, दर्शन आदि विविध विधयों का ज्ञान प्राप्त किया।मेड़ते वापस आने पर जसवन्त सिंह के प्रयास से औरंगजेब के कृपापात्र नवाब मोहम्मद खाँ के माध्यम से वृन्द का प्रवेश शाही दरवार में हो गया़। दरबार में "पयोनिधि पर्यौ चाहे मिसिरी की पुतरी" नामक समस्या की पूर्ति करके इन्होंने औरंगजेब को प्रसन्न कर दिया। उसने वृन्द को अपने पौत्र अजी मुशशान का अध्यापक नियुक्त कर दिया। जब अजी मुशशान बंगाल का शाशक हुआ तो वृन्द उसके साथ चले गए। सन् १७०७ में किशनगढ़ के राजा मानसिंह राजसिंह ने अपने यहाँ रहने के लिए बुला अजी मुशशान से वृन्द को माँग लिया।<br><br>सन् १८३५ में किशनगढ़ में ही वृन्द का देहावसान हो गया।इन्होंने ‘वृन्द विनोद सतसई’ वृन्द की रचना की यह ग्यारह रचनाएँ प्राप्त हैं- समेत शिखर छंद, भाव पंचाशिका, श्रृंगार शिक्षा, पोन पचीसी, हितोपदेश सन्धि, वृन्द सतसई ‘वृन्द सतसई’ के , वचनिका, सत्य स्वरूप, यमक सतसई, हितोपदेशाष्टक, भारत कथा, वृन्द ग्रन्थावली नाम से प्रसिद्ध है ।वृन्द की समस्त रचनाओं का एक संग्रह डा० जनार्दन राव चेले द्वारा संपादित होकर १९७१ ई० में प्रकाश में आया है।