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{{KKRachna
|रचनाकार=दुष्यंत कुमार
|संग्रह=सूर्य का स्वागत / दुष्यन्त दुष्यंत कुमार
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<poem>
सूरज जब
किरणों के बीज-रत्न
धरती के प्रांगण में
बोकर
हारा-थका
स्वेद-युक्त
रक्त-वदन
सिन्धु के किनारे
निज थकन मिटाने को
नए गीत पाने को
आया,
तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दिया,
ऊपर से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप
और शान्त हो रहा ।
सूरज जब<br>लज्जा से अरुण हुईकिरणों के बीज-रत्न<br>तरुण दिशाओं नेधरती आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यह !क्रोध से हिमालय के प्रांगण में<br>बोकर<br>हारावंश-थका<br>वर्त्तियों नेस्वेदमुख-युक्त<br>लाल कुछ उठायारक्त-वदन<br>फिर मौन सिर झुकायासिन्धु के किनारे<br>ज्यों – 'क्या मतलब ?'निज थकन मिटाने को<br>एक बार सहमीनए गीत पाने को<br>आया,<br>तब निर्मम उस सिन्धु ने डुबो दियाले कम्पन,<br>रोमांच वायुऊपर फिर गति से लहरों की अँधियाली चादर ली ढाँप<br>बहीऔर शान्त हो रहा ।<br><br>जैसे कुछ नहीं हुआ !
लज्जा से अरुण हुई<br>मैं तटस्थ था, लेकिनतरुण दिशाओं ने<br>आवरण हटाकर निहारा दृश्य निर्मम यहईश्वर की शपथ !<br>क्रोध से हिमालय सूरज के वंश-वर्त्तियों ने<br>साथमुख-लाल कुछ उठाया<br>हृदय डूब गया मेरा ।फिर मौन सिर झुकाया<br>अनगिन क्षणों तकज्यों – 'क्या मतलब?स्तब्ध खड़ा रहा वहींक्षुब्ध हृदय लिए ।'<br>मैं स्वयं डूबने को थाएक बार सहमी<br>स्वयं डूब जाता मैंले कम्पन, रोमांच वायु<br>यदि मुझको विश्वास यह न होता –-'मैं कल फिर गति देखूँगा यही सूर्यज्योति-किरणों से बही<br>भरा-पूराजैसे कुछ नहीं धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण कोजोतता-बोता हुआ!<br><br>,हँसता, ख़ुश होता हुआ ।'
मैं तटस्थ था, लेकिन<br>ईश्वर की शपथ!<br>सूरज के साथ<br>हृदय डूब गया मेरा ।<br>अनगिन क्षणों तक<br>स्तब्ध खड़ा रहा वहीं<br>क्षुब्ध हृदय लिए ।<br>औ' मैं स्वयं डूबने को था<br>स्वयं डूब जाता मैं<br>यदि मुझको विश्वास यह न होता –<br>'मैं कल फिर देखूँगा यही सूर्य<br>ज्योति-किरणों से भरा-पूरा<br>धरती के उर्वर-अनुर्वर प्रांगण को<br>जोतता-बोता हुआ,<br>हँसता, ख़ुश होता हुआ ।'<br><br> ईश्वर की शपथ!<br>इस अँधेरे में<br>उसी सूरज के दर्शन के लिए<br>जी रहा हूँ मैं<br>कल से अब तक!<br><br/poem>
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