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धूप और पल / राजश्री

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|रचनाकार=राजश्री
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अनुसंधान करती तपस्विनी-सी
टोह में घूमती नटखट चौर-सी
दबे पांव आती अनदिखे द्वार से
संध्या की एक कंचन किरण
जा बैठी दूर के सूने कोने में
बनी रोशनी के झरने की झील
श्यामलता पर ठिठोना सुनहला

छूकर किरण को अपनी उंगली से
लेकर सहारा अनंत पतवार का
झील में नैया सी मै बही
अनंत डोर से मैं पंतग सी बंधी
सुनहरी रेख में मै कण­कण बिखरी
संभाल कर उस कनक किरण को आंचल में बांध गांठ मैने लगाई

जीवन में कुछ क्षण उसी किरण से
जुगनु से झिलमिलाते रजनीगंधा से महकते
बूंदों की वेणी बन टहनी पर अटकते
सिंदूरी पराग से पर्ण मांग सजाते
बनते मेरे साक्षी मौन उत्तरों से
संभाल कर उन हंसते पलों को
आंचल में बांध गांठ मैने लगाई

एक गांठ और भी मैने बांधी
उफान तूफान और आग से भरी
सच को पाया या सच को जिया?
मन की गांठ में बंधे मौन प्रश्न
बर्फ से ठंडे, आरी से चीरतें
धूमकेतू से धरती आकाश समेटते
कभी बंदी पंछियों से बिलखते

आंचल की गांठ
और मन की गांठ!
भेद बड़ा एक दोनों में पाती हूं
ऑचल की गांठ जब खोलती हूं
धूप और पल हंसते हुऐ फिर बिछ जाते है
और मन की गांठ!
ये गांठ मुझसे खोली नहीं जाती।
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