1,110 bytes added,
18:05, 10 अप्रैल 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जयकृष्ण राय तुषार
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
सुलगते
सवाल कई
छोड़ गया मौसम |
मानसून
रिश्तों को
तोड़ गया मौसम |
धुआँ -धुँआ
चेहरे हैं
धान -पान खेतों के ,
नदियों में
ढूह खड़े
हंसते हैं रेतों के ,
पथरीली
मिट्टी को
गोड़ गया मौसम |
आंगन कुछ
उतरे थे
मेघ बिना पानी के ,
जो कुछ हैं
पेड़ हरे
राजा या रानी के ,
मिट्टी के
मटके हम
फोड़ गया मौसम |
मिमियाते
बकरे हम
घूरते कसाई ,
शाम -सुबह
नागिन सी
डंसती मंहगाई ,
चूडियाँ
कलाई की
तोड़ गया मौसम |
</poem>