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नदी फिर नहीं बोली / माया मृग
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14:08, 11 अप्रैल 2011
इसके अंग-अंग में बसा
इसकी देहयष्टि को
अखाडा
अखाड़ा
बना, क्रूर होकर
पूछा तुमने,
बोलो!क्या कहती हो?
अनिल जनविजय
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