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'''क्या कभी साहिर को भूली अमृता'''
जिन्दगी में आ गयी है रिक्तता |
 
मन में फैली कैसी है ये तिक्तता ||
 
 
प्रेम में इस कदर अँधा हो गया |
 
दुनिया से है हो गयी अनभिज्ञता ||
 
 
जी रहा हूँ अतीत में मैं इस कदर |
 
की देखता हूँ भविष्य, दिखती शून्यता ||
 
 
शिथिल तन में मन हुआ है बदहवास |
 
खुशमिजाजी में हुई है न्यूनता ||
 
 
 
एक दोराहे पे आ ठिठका खड़ा हूँ |
 
एक तरफ है प्रेम दूजे पूर्णता ||
 
 
जिन्दगी में आ गया इमरोज, फिर भी |
 
क्या कभी साहिर को भूली अमृता?
 
(Thursday, July 15, 2010)
 
यह कविता स्वरचित है.
केशवेंद्र
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