{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसीदास
}}{{KKCatKavita}}[[Category:लम्बी रचना]]{{KKPageNavigation|पीछे=* [[पद 11 से 20 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 41]]|आगे=विनयावली() * [[पद 11 से 20 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 32]]|सारणी=* [[पद 11 से 20 तक / तुलसीदास/ पृष्ठ 3]]}}<poem>'''* [[पद संख्या 19 तथा 11 से 20'''तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4]](19) श्री हरनि पाप, त्रिबिधि ताप सुमिरत सुरसरित। बिलसित महि कल्प-बेलि मुद-मनोरथ -फरित।। सोहत ससि धवल धार सुधा-सलिल-भरित। बिमलतर तरंग लसत रघुबरके-* [[पद 11 से चरित।। तो बिनु जगदंब गंग कलिजुग का करित? घोर भव अपार सिंधु तुलसी किमि तरित।। (20) श्री ईस-सीस बससि, त्रिपथ लससि, नभ-पाताल-धरनि। सुर-नर-मुनि-नाग-सिद्ध-सुजन मंगल-करनि।। देखत दुख-दोष-दुरित-दाह -दादिद-दरनि। सगर-सुवन साँसति-समनि, जलनिधि जल भरनि।। महिमाकी अवधि करसि बहु, बिधि हरनि। तुलसी करू बानि बिमल, बिमल-बारि बरनि।। <poem>तक / तुलसीदास / पृष्ठ 5]]