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<poem>
एक झीना-सा परदा था, परदा उठा
सामने थी दरख़्तों की लहराती हरियालियाँ
झील में चाँद कश्ती चलाता हुआ
और ख़ुशबू की बाँहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे
एक झीनाफिर तो सलमों-सा परदा था, परदा उठा<br>सामने थी दरख्तों सितारों की लहराती हरियालियां<br>साड़ी पहनझील में चांद कश्ती चलाता हुआ<br>गोरी परियाँ कहीं से उतरने लगींऔर खुशबू की बांहों में लिपटे हुए फूल ही फूल थे<br><br>उनकी पाजेब झन-झन झनकने लगीहम बहकने लगे
फिर तो सलमों-सितारों की साड़ी पहन<br>गोरी परियां कहीं से उतरने अपनी नज़रें नज़ारों में खोने लगीं<br>उनकी चाँदनी उँगलियों के पोरों पे खुलने लगीउनके होठ, अपने होठों में घुलने लगेऔर पाजेब झन-झन झनकने लगी<br>झनकती रहीहम बहकने लगे<br><br>पीते रहे और बहकते रहेजब तलक हल तरफ़ बेख़ुदी छा गई
अपनी नज़रें नज़ारों हम न थे, तुम न थेएक नग़मा था पहलू में खोने लगीं<br>बजता हुआचांदनी उंगलियों के पोरों पे खुलने लगी<br>एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआउनके होठ, बेख़ुदी थी कि अपने होठों में घुलने लगे<br>और पाजेब झन-झन झनकती रही<br>हम पीते रहे और बहकते रहे<br>जब तलक हल तरफ बेखुदी छा गई<br><br>डूबी हुई
हम न थे, तुम न थे<br>एक नग़मा था पहलू में बजता हुआ<br>एक दरिया था सहरा में उमड़ा हुआ<br>बेखुदी थी कि अपने में डूबी हुई<br><br> एक परदा था झीना-सा, परदा गिरा<br>और आंखें आँखें खुलीं...<br>खुद ख़ुद के सूखे हलक में कसक-सी उठी<br>प्यास ज़ोरों से महसूस होने लगी।<br>लगी ।<br/poem>
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