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एक साँझ / कीर्ति चौधरी

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साखू-शहतूतों की डालों पर,
लौटे प्रवासी जब,
नीड़ों में किलक उठी,
नीड़ों में किलक उठी,
दिशि-दिशि में गूँज रमी ।
पच्छिमकी राह बीच,सुर्ख़ चटक फूलों पर,कोई पर, कूलों पर,पलकें समेट उधरसाँझ ने सलोना सुख हौले से टेक दिया।एकाएक जलते चिराग़ों कोचुपके से जैसे किसी ने ही मंद किया ।दुग्ध-धवल गोल-गोल खम्भों पर,छत पर, चिकों पर,वहाँ काँपती बरौनियों की परछाहीं बिखर गई ।आह ! यह सलोनी, यह साँझ नई ! मैं तो प्रवासी हूँ :ऊँचा यह बारह-खम्भिया महल,औरों का ।दुग्ध-धवल आँखों में,अंजन-सी अँजी साँझकजरारी, बाँकी, कँटीली,उस चितवन-सी सजी साँझऔरों की ।मेरी तोछज्जों, दरवाज़ों 
</poem>
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