( छंद 182, 183)
(182)
बिरची बिरंचिकी , बसति बिस्वनाथकी जो,
प्रानहू तें प्यारी पुरी केसव कृपालकी।
जोतिरूप लिंगमई अगनित लिंगमयी,
मोच्छ, बितरनि, बिदरनि जगजालकी।।
देबी-देव-देवसरि-सिद्ध-मुनिबर-बास,
लोपति-बिलोकत कुलिपि भोंड़ें भालकी,।।
हा हा करै तुलसी, दयानिधान राम! ऐसी,
कासीकी कदर्थना कराल कलिकालकी।।
(183)
आश्रम -बरन कलि बिबस बिकल भए,
निज-निज मरजाद मोटरी-सी डार दी।।
संकर सरोष महामारिहीतें जानियत,
साहिब सरोष दूनी-दिन-दिन दारदी।।
नारि-नर आरत पुकारत , सुनै न कोऊ ,
काहूँ देवतनि मिलि मोटी मूठि मारि दी।।
तुलसी सभी तपाल सुमिरें कृपालराम ,
समय सुकरूना सराहि सनकार दी।।
इति
(उत्तरकाण्ड समाप्त)
(कुछ प्रतियों में 177 छंद ही मिलते हैं ।
काशी -नागरी -प्रचारिणी -सभा की प्रति में
183 छंद हैं । अतः 183 छंद रखे गये हैं।)
इति
(कवितावली समाप्त)
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