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{{KKRachna
|रचनाकार=रेशमा हिंगोरानी
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डराओ क्या उसे अन्जामे-इश्क से यारों,
कि खुद अपने ही जो साए से रहे खौफज़दा?

(खौफज़दा - डर का मारा हुआ)

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न हो पूरी कभी ख़्वाहिश, तो खलिश और बढे है,
औ’ मुक़म्मल हो, तो लुत्फ़े-ख़लिश भी जाती रहे है!

(खलिश - चुभन; मुक़म्मल - पूरी; लुत्फ़े-ख़लिश - चुभन का मज़ा)

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बस एक वक्फ़ा-ए-गर्दिशे-दौराँ,
और अपनी बिसाते-जाँ क्या है?

(वक्फ़ा-ए-गर्दिशे-दौराँ - वक़्त के लगातार चलने वाले पहिए में एक विराम / छोटी सी रोक;
बिसाते-जाँ - ज़िंदगी की पहुँच / हैसियत)

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हयात की भी अगर कोई हकीक़त है कहीं,
तो मुकाबिल हो कभी, सामने आ जाये कहीं!
(हयात - जिंदगी; मुकाबिल - आमने-सामने)

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न हो माज़ूर इस कदर, महज़ माज़ी है तेरा,
दे तू फर्दा पे तवज्जो, वही राज़ी है तेरा!

(माज़ूर - उदास; माज़ी - बीता हुआ वक़्त; फर्दा - आने वाला वक़्त; तवज्जो - ध्यान)
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