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23:14, 20 मई 2011 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=नवनीत पाण्डे
|संग्रह=
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>हमारे लिए क्या काफ़ी है?
पैदा होते ही रोना
खाना, निकालना
बोलना, सुनना, सीखना
हमारे लिए क्या काफ़ी है?
दिए हुए नामों की लकीरों पर
दी गई धरती पर
दिए गए घर-बेघर में
दिए गए रिश्तों के कुओं में
जीते जाना
हमारे लिए क्या काफ़ी है?
दिए गए आदर्शों में
नहीं मालूम
उन्हें धूर्तता क्यों नहीं कहा गया
क्यों नहीं बना कमीनापन
कभी कोई आदर्श
हमें जो दिए गए हैं मसीहा
जो बताए गए हैं दानव
हमारे लिए क्या काफ़ी है?
तुम कहते हो
कुछ नहीं बचेगा
बचेगा केवल शब्द
झूठ है..
सब हैं बचे हुए
बचा हुआ है जीवन
बचे हुए हैं जीवन के अवलंब
बचे हुए हैं हम
इन्हीं शब्दों में
इन्हीं शब्दों के धनुष से निकले
बाणों की शैय्या पर लेटे हैं हम
मरे हुए समय की
लहुलुहान जिन्दा सांसें लेते हुए
हमारे लिए क्या काफ़ी है?</poem>