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पत्थर / उमेश चौहान

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'''पत्थर'''
 
पता नहीं कैसे
हो जाते हैं कुछ लोग
कुछ लोगों को नहीं भाती
मिट्टी की खुशबू ख़ुशबू
उसकी उर्वरता का आधार ,नमी
उसमें पनपती हरियाली का एक भी कतरा
ऐसे ही कुछ लोग आजकल
ढकने में जुटे हुये हुए हैं
पत्थरों से
एक-एक इंच भूमि को
पाटे जा रहे हैं चौराहों-नुक्कड़ों को
पत्थर की मूर्तियों से
चुनते जा रहे हैं/ पत्थरों की दीवारें पार्को मैदानों के चारों तरफ तरफ़ ताकि न देख सके कोई भी रहागीर राहगीर
कहीं भी हरियाली का एक टुकड़ा
सत्तासीन पत्थर-प्रेमी
निरन्तर जुटाये जुटाए जा रहे हैं
भाँति-भाँति के तराशे हुए पत्थर
पूरे के पूरे लोक-राजस्व को
पत्थरों में समाया जा रहा हे राज-कोष
लुटती जा रही है लगातार
हमारी आँखों की बची -खुची तरलता क्या होगा जब सूख जाऐंगी जाएँगी इन आँखों से सदा-सिंचित होती रही परधाराऐं!
क्या हम सब बाध्य हो जाऐंगे जाएँगे
पत्थरों पर अपना सिर पटकने के लिए
उस दिन का/ जब भरेगा अपने आप
इन पत्थर-दिल लोगों के पाप का घड़ा
जैसा सदियों से होता आया है
पत्थर के महलों में रहने वालों के साथ।साथ ।
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