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<poem>
अहसासों का चौरा दरका
श्यामनारायण मिश्र

कौन करे दिये-बत्तियां
तुमने जो लिखी नहीं
मैंने जो पढ़ी नहीं
आंखों में तैर रहीं चिट्ठियां

छाती से
सूरज का दग्ध-लाल गोला लुढ़काकर,
अभी अभी बैठा हूं
आंखों के दरवाज़े
पलकें उढ़काकर।
भीतर ही भीतर
लगता है कोई
खोद रहा खत्तियां।

सुबह-शाम
विष की थैली उलटाकर
समय-सांप सरका।
नेह-छोह से तुमने
लीपा था पोता था,
भीतर अहसासों का चौरा दरका।
खेल हैं, खिलौने हैं,
किसके संग करूं कहो
फिर सग्गे-मित्तियां।
</poem>