वह नदी की आंखों में डूबकर
सागर की गहराई नापना चाहता था
और आसमान की अतल ऊंचाइयों में
कल्पना के परों से उड़ान भरना चाहता था,
पर वह नदी तो कब से सूखी पड़ी थी,
बालू, पत्थर और रेत से भरी थी
वह कैसी नदी थी जिसमें स्वच्छ जल न था,
न धाराएं थीं, न प्रवाह दिखता था,
वहां सिर्फ आग ही आग थी
नदी थी तो दुःख का विस्तार था,
वहाँ पानी नहीं, हर तरफ हाहाकार था
नदी की आँखों में आंसुओं की धारा थी,
उसकी आंखों में भी आंसुओं की धारा थी,
एक धारा का दूसरे से इस तरह नाता था
कैसे कह दूं कि वहां जीवन न था</poem>