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नदी / राकेश प्रियदर्शी

11 bytes removed, 14:32, 24 मई 2011
वह नदी की आंखों में डूबकर
 
सागर की गहराई नापना चाहता था
 
और आसमान की अतल ऊंचाइयों में
 
कल्पना के परों से उड़ान भरना चाहता था,
 
पर वह नदी तो कब से सूखी पड़ी थी,
 
बालू, पत्थर और रेत से भरी थी
वह कैसी नदी थी जिसमें स्वच्छ जल न था,
 
न धाराएं थीं, न प्रवाह दिखता था,
 
वहां सिर्फ आग ही आग थी
नदी थी तो दुःख का विस्तार था,
 
वहाँ पानी नहीं, हर तरफ हाहाकार था
नदी की आँखों में आंसुओं की धारा थी,
 
उसकी आंखों में भी आंसुओं की धारा थी,
 
एक धारा का दूसरे से इस तरह नाता था
 
कैसे कह दूं कि वहां जीवन न था</poem>