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23:37, 24 मई 2011 <poem>मुझे एक दिन वही करना था
सवाल उठता हैं
तो पहले ही क्यों नहीं किया
जवाब यह होगा या होना चाहिए
कि तब यह शायद संभव ही नहीं था
पर नहीं यह जवाब नहीं होता
जवाब में फिर एक सवाल छिपा होता हैं
क्या कोई जानता हैं कब क्या होता
वही सब जो अब किया
तब नहीं किया
अच्छा किया
उस भार से मुक्त रहे अब तक
यह क्या कम हैं
और कम तो यह भी नहीं कि
वह भार अब यूँ भी अब वैसा नहीं लग रहा
कंधे मजबूत हो गए या फिर आदत भी बदल गयी
पहचान करने की
दुखता नहीं पहले की तरह अब और यह भी
कि रोना नहीं होता
बस कुछ टूटता सा हैं भीतर
शुक्र हैं बाहर सब कुछ साबुत दिखता हैं
</poem>
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