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{{KKRachna
|रचनाकार=त्रिपुरारि कुमार शर्मा
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<Poem>
छुपा कर ख़ुद को रात की नज़रों से मैं
अपनी छत पर चला जाता हूँ
फिर बुलाता हूँ चाँद को इशारों से
उसकी आहट से माहौल महक उठता है
वह आते ही गालों पे बोसा करता है
और मैं नाज़ुक-सी पलकें चूमता हूँ
फिर जोर से जकड़ता है अपनी बाँहों में
और सुलाता है अपने सीने पर
कभी वह मुझको ओढ़ लेता है
कभी मैंने भी बनाया है बिछौना उसका
सारी रात हम सोते हैं न जागते हैं
धुंधले ख्वाबों के पीछे भागते हैं
हमारे दरमियान क्या रिश्ता है पता ही नहीं
मगर आपस में प्यार बहुत करते हैं
इंतज़ार बस रहता है शाम कब होगी
सहर होते ही तकलीफ उसे भी होती है

हमारे रिश्ते का कोई नाम नहीं शक्ल नहीं
लोग कहते हैं ‘गे’ हैं दोनों...
<Poem>
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