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01:32, 26 मई 2011 {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=रमा द्विवेदी }}
<poem>
दहलीज तक मेरी,
वे आए जरूर थे,
पर जाने क्या हुआ,
रास्ते बदल गए।
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हम सिसकियाँ भरते रहे,
दहलीज के इस पार,
आँखों में अश्रु लेके,
वे भी चले गए।
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दहलीज-ए- दायरा,
कुछ इतना बड़ा हुआ,
ताउम्र कैद बन रहे,
उनके इन्तज़ार में।
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दहलीज के इस पार,
वे भी न आ सके,
हम लांघ कर दहलीज को,
न जा सके उस पार।
<poem>