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साँपों की बस्ती / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
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08:24, 27 मई 2011
कच्चे सपनों को
बाँट रही दुख-दर्द ग़रीबी
अपनों
अपने
अपनों को
मूँगफली बादाम हो गई
सुरा हुई सस्ती ।
धन-कुबेर को अपने घर में
बैठी बन्द किए
मूक दिशाएँ देख रही
बस
हैं
अपने होठ सिए
कार विदेशी, ऊँची कोठी
Shilendra
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