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हिफ़ाज़त में कोई पलता हुआ नासूर लगता है / अशोक आलोक
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08:16, 5 जून 2011
हज़ारों ख़्वाहिशें दिल में अमन के वास्ते लेकिन
दुआ का हाथ जाने क्यों बहुत मायूस लगता है
मज़ा आता है अक्सर यूं बुझाने में
चिरागों
चिराग़ों
को
हवा को क्या पता कितना जिगर का खून लगता है
</poem>
योगेंद्र कृष्णा
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